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टेढ़े मेढ़े रास्ते

भगवतीचरण वर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :410
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2456
आईएसबीएन :9788126730261

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इसमें सन् 1920 के बाद के वर्षों में भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में सक्रिय राजनीतिक, विचारधाराओं और शक्तियों का चित्रांकन किया गया है...

Tede Mede Raste

भगवतीचरण वर्मा ने अपने प्रथम उपन्यास पतन की रचना अपने कॉलेज के दिनों में की थी। सन् 1932 में भगवती बाबू ने पाप और पुण्य की समस्या पर अपना प्रसिद्ध उपन्यास चित्रलेखा लिखा जो हिन्दी साहित्य में एक क्लासिक के रूप में आज भी प्रख्यात है जो एक प्रेमकथा है। सन् 1948 में उनका प्रथम वृहत उपन्यास टेढ़े मेढ़े रास्ते आया जिसे हिन्दी साहित्य के प्रथम राजनीतिक उपन्यास का दर्जा मिला। इसी श्रृंखला में उन्होंने आगे चलकर वृहत राजनीतिक उपन्यासों की एक श्रृंखला लिखी जिसमें भूले-बिसरे चित्र, साधी-सच्ची बातें, प्रश्न और मारीचिका, सबहिं नचावत राम गोसाईं एवं सामर्थ्य और सीमा प्रमुख है।

भगवतीचरण वर्मा के सभी उपन्यासों में एक विविधता है। उन्होंने हास्य-व्यंग्य, समाज, मनोविज्ञान और दर्शन सभी विषयों पर उपन्यास लिखे। कवि और कथाकार होने के कारण वर्मा जी के उपन्यासों में भावनात्मकता और बौद्धिकता का सामंजस्य मिलता है। चित्रलेखा में भगवती बाबू का छायावादी कवि-रूप स्पष्ट दिखता है जबकि टेढ़े-मेढ़े रास्ते को उन्होंने अपनी प्रथम शुद्ध बौद्धिक गद्य-रचना माना है।

इस खंड में प्रस्तुत टेढ़े-मेढ़े न केवल भगवतीचरण वर्मा के, बल्कि समग्र हिन्दी कथा-साहित्य के गिने-चुने श्रेष्ठतम उपन्यासों में से एक है।

 

पहला परिच्छेद

सन् और तारीख याद नहीं, और याद रखने की कोई आवश्यकता नहीं, बात सन् 1930 के मई के तीसरे सप्ताह की है।
गरमी ने एकाएक भयानक रूप धारण कर लिया था और थरमामीटर बतलाया था कि दिन का टेम्परेचर 115 तक पहँच गया है। लू के प्रचंड झोंके चल रहे थे और उन्नाव शहर की सड़कों पर सन्नाटा था। लोगों को घर के बाहर निकलने का साहस न होता था; सूर्य के प्रखर प्रकाश से आँखें जल-सी जाती थीं। उस समय दोपहर के दो बज रहे थे।

पंडित रामनाथ तिवारी अपने कमरे में सोये हुए थे। दरवाजों पर खस-टट्टियाँ लगी थीं जिन पर नौकर हर आध घंटे बाद पानी छिड़क देता था। पंखा चल रहा था। तीन घंटे तक लगातार पंखा खींचने के बाद उसे कुछ थकावट मालूम हुई, और उस थकावट पर लू के झुलसा देने वाले थपेड़े भी विजय न पा सके। उसकी आँखें धीरे-धीरे झपने लगीं और हाथ धीरे-धीरे धीमा पड़ने लगा। आँखें झपते-झपते बंद हो गई, हाथ धीमा पड़ते-पड़ते रूक गया; और पंखाकुली सपना देखने लगा।
पंखा बंद हो गया और रामनाथ तिवारी की मीठी नींद टूट गई। उन्होंने जोर से आवाज लगाई, ‘‘अबे ओ कलुआ के बच्चे-सोने लगा ! साले-मारे हंटरो के खाल उधेड़ दूँगा।’’

पंडित रामनाथ तिवारी का इतना कहना था कि पंखाकुली चौंक पड़ा। उसने अपनी आँखें खोल दीं और हाथ फिर मशीन की भाँति चलने लगा।
पंडित रामनाथ तिवारी ने करवट बदली पर उन्हें नींद न आई। लेटे ही लेटे उन्होंने सिरहाने रखी चाँदी के गिलौरीदान से पान खाया, उसके बाद उन्होंने घड़ी देखी। अभी केवल दो बजे थे-केवल दो; और उन्हें कचहरी करनी थी पाँच बजे शाम को। तिवारी जी उठकर बैठ गए, उन्होंने आवाज दी, ‘‘कोई है ?’’

‘‘हाँ सरकार !’’ कहता हुआ उनका निजी खिदमतगार रामदीन बगलवाली दालान से निकलकर उनके सामने खड़ा हो गया।
‘‘वह खिड़की खोल दो !’’ तिवारीजी ने कोनेवाली खिड़की की ओर इशारा किया। रामदीन ने खिड़की खोल दी, इसके बाद वह फिर अपनी दालान में चला गया।

तिवारीजी ने मेज पर निगाह डाली, उस दिन की डाक पड़ी थी। चश्मे के केस से चश्मा निकालकर लगाते हुए उन्होंने डाक का गड उठा लिया और एक बार आदि से अंत तक उलट-पुलट गए उन्होंने व्यग्रता के साथ निकाले, एक पर ‘आन हिज मेजेस्टीज सर्विस लिखा था और दूसरे के पते पर उमानाथ के हाथ की लिखावट थी। कुछ देर तक सोचकर कि पहले कौन-सा पत्र खोला जाए, उन्होंने उमानाथ का पत्र खोला

उमानाथ तिवारीजी का मझला लड़का था, बड़े का नाम था दयानाथ और छोटे का नाम प्रभानाथ था। दयानाथ कानपुर में वकालत कर रहा था और प्रभाकर इलाहाबाद में एम.ए. की परीक्षा दे कर घर आ गया था। उमानाथ दो साल हुए, औद्योगिक शिक्षा के लिए जर्मनी गया था। उसका पत्र जापान से आया था जिसमें उसने लिखा था कि वह जून के दूसरे सप्ताह में कलकत्ता से पदार्पण करेगा।

पत्र पढ़कर रामनाथ मुस्कुराए। एक क्षण के लिए उमाकान्त की मूरत उनकी आँखों के आगे छा गई। वे उमानाथ पर और भी कुछ सोचना चाहते थे, पर इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली क्योंकि सरकारी पत्र उन्हें देख रहा था। उस पत्र को उन्होंने खोला। उस पत्र  को पढ़कर रामनाथ की मुस्कुराहट लोप हो गई और उनका मुख गम्भीर हो गया। उनहोंने उस पत्र को तीन बार पड़ा और प्रत्येक बार उनके मुख की  गंम्भीरता बढ़ती ही गई। वह पत्र था जिसमें कलक्टर ने लिखा था कि रामनाथ के बड़े लड़के दयानाथ ने कांग्रेस ज्वाइन कर लिया है और सरगर्मी के साथ कांग्रेस की गैर-कानूनी कार्रवाइयों में हिस्सा ले रहा है। साथ ही रामनाथ से यह भी कहा गया था कि सरकार रामनाथ के लिहाज से अभी तक दयानाथ के खिलाफ कार्रवाई करने से रुकी हुई है। कलक्टर साहेब ने यह आशा प्रकट की थी कि रामनाथ अपने बड़े पुत्र को गलत मार्ग पर चलने से रोकेंगे।

तिवारीजी ने पत्र मेज पर रख दिया, तकिया के सहारे बैठकर वे सोचने लगे। जितना सोचते थे उतने ही उलझते जाते थे, और अन्त में उन विचारों से ऊबकर उन्होंने फिर पान खाया। इसके बाद उन्होंने घड़ी देखी-साढे तीन बजे थे।
वे लेट गए और सोचने लगे। जिस समय आँख खुली, साढ़े पाँच बज रहे थे।

पंडित रामनाथ तिवारी अवध के छोटे-से ताल्लुकदार थे। अपनी रियासत बानापुर में रहकर वे प्रायः उन्नाव में रहते थे उनके कारण। तिवारी सभ्य तथा सुसंस्कृत पुरूष थे, उन्हें सभ्य तथा पढ़े-लिखे लोगों का ही साथ पसन्द था। ग्रामीण जीवन में विद्वानों के संसर्ग का अभाव था। इस अभाव को उन्होंने उन्नाव आकर दूर किया था। यद्यपि उन्नाव छोटा-सा कस्बा था पर जिला का सदर होने के कारण वहाँ कलक्टर, डिप्टी कलक्टर आदि पढ़े-लिखे अफसर रहते थे।

दूसरा कारण था तिवारी का दयालु होना। किसानों की हालत वैसे कहीं भी अच्छी नहीं रहती है, पर अवध के किसानों की हालत तो बहुत अधिक करूणाजनक है। ये किसान अपनी-अपनी फरियादें लेकर राजा साहेब, अर्थात् तिवारीजी के पास आते थे, और इनकी शिकायतों को दूर करना तिवारीजी अपना कर्तव्य समझते थे। पर शिकायतों को दूर करने के अर्थ प्रायः हुआ करते थे राज्य को अर्थात् तिवारीजी को हानि से बचाने के लिए किसानों को जिलेदार सरवराकर और मैनेजर से निपटने के लिए उनके भाग्य पर छोड़कर तिवारीजी उन्नाव में आ बसे थे।

तिवारीजी आनरेरी मजिस्ट्रेट थे और किसी का नौकर न होने के कारण अपनी अदालत वे अपने बँगले में ही करते थे। इसमें सरकार को भी कोई आपत्ति न थधी क्योंकि यदि तिवारीजी अपने बँगले में अदालत न करते तो सरकार को कोई इमारत किराए पर लेनी पड़ती और इसमें उसका खर्च होता।
किसी का नौकर न होने के कारण तिवारीजी की अदालत का समय भी अनिश्चित था। अदालतों का समय प्रायः दस बजे हुआ करता है। हर एक सम्मन पर यही वक्त दिया होता है और दिहात से आनेवाले  को तो ठीक दस बजे अदालत में हाजिर होना पड़ता है।

तिवारीजी के बँगले के सामनेवाले मैदान में नीम के पेड के नीचे मुकदमों में आये लोगों की भीड़ एक बजे से तिवारीजी के दर्शनों का इंतजार कर रही थी। कुछ अपने मुकदमों की बातें कर रहे थे, कुछ भयानक गरमी और उससे भी भयानक लू पर, जिससे उसी दिन तीन आदमी मर चुके थे, टीका-टिप्पड़ी कर रहे थे और कुछ दबी जुबान तिवारीजी को गालियाँ दे रहे थे। तिवारीजी की लाइब्रेरी के कमरे में जो दोपहर बारह बजे से छै बजे शाम तक अदालत का कमरा कहलाता था पेशकार उस दिन पेश होनेवाले मुकदमों की मिसलों को उलट पलट रहा था। उसके इर्द-गिर्द खड़े हुए वकीलों के मुहर्रिर पेशकार साहेब की रूपए और अठन्नी से पूजा कर रहे थे।

ठीक छै बजे तिवारीजी अदालत के कमरे में आए। चपरासी खुदाबख्श से उन्होंने कहा, ‘‘सत्यनारायण से बोले, मेरी मोटर लावे !’’ और फिर उन्होंने पेशकार से कहा, ‘‘आज के सब मुकदमें मुल्तवी कर दो, मेरी तबीयत ठीक नहीं, अभी कानपुर जाना है।’’
कार कमरे के सामने लग गई। सत्यनारायण ड्राइवर ने आकर सूचना दी। तिवारीजी ने कुछ सोचकर कहा, ‘‘तुम्हें मेरे साथ नहीं चलना है-देखो प्रभा तैयार हो गया ?’’
‘‘सरकार, छोटे कुँवर तो मोटर पर बैठे आपका इंतजार कर रहे हैं !’’
‘‘ठीक ! प्रभा ड्राइवर कर लेगा, तुम्हारी आज की छुट्टी है !’’ और तिवारीजी कार पर बैठ गए।

प्रभाकर स्टियरिंग व्हील पर बैठा था और रामनाथ पिछली सीट पर बैठे नहीं, लेटे थे। उस समय उनका मुख गम्भीर था और उनके मस्तक पर बल पड़े थे। उन्नाव से कानपुर का फासिला केवल ग्यारह मील का है पर पंडित रामनाथ तिवारी को वह फासिला ग्यारह सौ मील का मालूम हो रहा था। आँखें खोलकर उन्होंने सड़कों की ओर देखा, सड़क पर लगे हुए मील के पत्थर ने उन्हें बतलाया कि वे अभी केवल दो मील आए हैं। झल्लाकर उन्होंने कहा, ‘‘कितना धीमे चल रहे हो प्रभा ! तेज चलो, मुझे जल्दी है !’’

प्रभानाथ ने स्पीडमीटर की ओर देखा, सुई चालीस पर थी। उसने कार की रफ्तार और तेज की, सुई साठ पर पहुँच गई। रामनाथ ने ठंडी साँस ली और फिर आँखें बंद कर लीं।
इस तरह आँखें बंद किए हुए वे करीब दो मिनट बैठे रहे कि एक झटके से चौंक उठे। ‘‘कितना आए हैं ?’उन्होंने अपने चारों तरफ देखते हुए पूछा।
‘‘पाँच मील !’’ प्रभाकर मुस्कुराया, ‘‘ददुआ क्या बात है जो आप इतने व्यग्र हो रहे हैं ?’’

रामनाथ ने कोई उत्तर नहीं दिया। यद्यपि प्रभानाथ का मुँह सामने था और रामनाथ उसे न देख सकते थे, पर फिर भी रामनाथ को मालूम हुआ हो गया कि प्रभानाथ मुस्करा रहा है-और शायद उन पर। पुत्र की इस बात पर रामनाथ को हल्की-सी झुँझलाहट आई, और उनका मौन उनकी झुँझलाहट का द्योतक था।
प्रभानाथ ने बात बदली। ‘‘ददुआ, साठ मील फी घंटा की रफ्तार से गाड़ी दौड़ रही है; अभी उन्नाव छोड़े कुल सात-आठ मिनट हुए होंगे !’’
‘‘ऐं ! साठ मील फी घंटा !’’ कहते हुए पंडित रामनाथ ने अपनी सोने की जेब की घ़ड़ी देखी, ‘‘अरे कुल छै मिनट ! गाड़ी धीमी करो प्रभा !’’
लेकिन प्रभानाथ ने गाड़ी धीमी करने के स्थान पर और तेज कर दी-स्पीडोमीटर अब सत्तर दिखला रहा था। पर राम नाथ ने गाड़ी की इस तेजी पर ध्यान नहीं दिया, अपनी बात कहकर वह फिर सोचने लगे थे।

गंगा के पुल के पासवाले स़ड़क की मोड़ पर गाड़ी धीमी करते हुए प्रभाकर ने कहा, ददुआ, कहाँ चलें, बड़के भैया के यहाँ ?’’
रामनाथ चौंक उठे, वे तनकर बैठ गए। फिर उन्होंने अपने चारों ओर देखा। और बाईं ओर गंगा बह रही थी और करीब दो सौ गज की दूरी पर गंगा का पुल था उन्होंने कहा, ‘‘दया के यहाँ, सीधे और जल्दी से जल्दी ! समझे !’’
दयानाथ का बँगला सिविल लाइन्स में था और वे मशहूर आदमी थे। प्रभानाथ ने देखा कि दयानाथ के बँगले की बरसाती के नीचे तीन-चार कारें खड़ी हैं, इसलिए अपनी कार उसे पोर्टिको से कुछ दूर हटाकर लगानी पड़ी। रामनाथ ने कहा, ‘‘दया को यहीं बुला लाओ !’’

प्रभानाथ गाड़ी से उतरकर बँगले की ओर बढ़ा। वह करीब दस कदम ही गया होगा कि रामनाथ ने आवाज दी, ‘‘नहीं- मैं खुद चलूँगा-ठहरो ! तुम मेरे साथ-साथ मेरे पीछे रहोगे।’’ इतना कहकर रामनाथ कार से उतर पड़े।
दयानाथ के ड्रांइग-रूम में नगर के प्रमुख कांग्रेसमैनों की बैठक हो रही थी। कमरे के बाहर एक स्वयंसेवक स्टूल पर बैठा हुआ, ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा !’ गाने की पहली पंक्ति बड़ी तन्मयता के साथ गा रहा था।

स्वयंसेवी ने स्टूल पर बैठे ही बैठे कहा, ‘‘वकील साहेब से इस समय मुलाकात नहीं हो सकती, कांग्रेस की बैठक हो रही है !’’
स्वयंसेवी की बात पर ध्यान न देकर पंडित रामनाथ तिवारी तेजी के साथ दरवाजे की ओर बढ़े। स्वयंसेवी उठ खड़ा हुआ, अपने डण्डे को उसने दरवाजे से लगाकर कहा, ‘‘आप भीतर नहीं जा सकते। मैंने कहा न कि सभा हो रही है।’’
पंडित रामनाथ तिवारी की आँखों में खून उतर आया। एक टुकड़खोर स्वयंसेवक की यह हिम्मत कि वह बानापुर के ताल्लुकदार पंडित रामनाथ तिवारी को उनके लड़के के मकान में जाने से रोके, उन्होंने उसी समय एक तमाचा स्वयंसेवक को मारा। स्वयंसेवक पचीस वर्ष का एक नवयुवक था। पर पैंसठ वर्ष के वृद्ध पंडित रामनाथ तिवारी का तमाचा खाकर उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया और वह जमीन पर बैठ गया। रामनाथ तिवारी ने महान उग्र रूप धारण करके ड्राइंग-रूप में प्रवेश किया। प्रभाकर उसके पीछे था।

दयानाथ के ड्राइंग-रूम में दस आदमी थे, सभी कांग्रेस के प्रमुख कार्यकर्ता।
नमक-सत्याग्रह आरम्भ होने से दो महीने तक सरकार चुपचाप सबकुछ देखती रही थी, पर अब सरकार ने भी गिरफ्तारियाँ आरम्भ कर दी थीं। इधर कांग्रेस ने भी सरगर्मी के साथ अपना युद्ध-मोरचा जमा रखा था-जोरों के साथ काम चल रहा था। सन् 1930 के आन्दोलन में एक खास बात यह थी कि देश के व्यापारियों ने कांग्रेस का बहुत साथ दिया था। यद्यपि जेल जानेवालों में प्रमुख व्यापारियों की संख्या नगण्य–सी थी, पर उन्होंने धन से बहुत अधिक सहायता की थी। कानपुर उत्तर भारत का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र है और इसलिए वहाँ भी कांग्रेस का बहुत बड़ा जोर था। दयानाथ के यहाँ जो सभा हो रही थी उसमें अमीर श्रेणीवाले भी काफी तादाद में थे।

कमरे में रामनाथ के प्रवेश करने के साथ ही लोगों  की बातचीत बंद हो गई और सबों ने रामनाथ की ओर देखा। अपने पिता को देखते ही दयानाथ उठ खड़ा हुआ, ‘‘अरे ददुआ ! और उसने अपने पिता के चरण छुए।
रामनाथ ने दयानाथ को आशीर्वाद नहीं दिया, क्रोध से उनकी आँखें लाल थीं। उन्होंने एक बार गौर से उस कमरे में बैठे हुए समुदाय को देखा फिर उन्होंने उन लोगों से कहा, ‘‘अपने उस बदतमीज टुकड़खोर वालंटियर को, जिसे आप लोगों ने मेरा अपमान करने के लिए दरवाजे पर बिठा रखा था, सम्हालिए। देखिए उसे कुछ चोट-वोट तो नहीं आ गई।’’
उत्तर लाला रामकिशोर ने दिया, ‘‘आप दयानाथ जी के पिता हैं और उससे आप सबकुछ कह सकते हैं, लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि आप हम लोगों का अपमान क्यों कर रहे हैं !’’

लाला रामकिशोर कानपुर के प्रमुख व्यापारी थे। उनकी चार मिलें थीं, और इनकमटैक्स तथा सुपरटैक्स में वे सरकार को इतना रूपया देते थे कि जितने की रामनाथ तिवारी की निकासी थी। लाला रामकिशोर से पंडित रामनाथ तिवारी भलीभाँति परिचित थे, वे जरा धीमे पड़े। एक खाली कुर्सी पर बैठते हुए उन्होंने कहा, ‘‘लाला रामकिशोर, मैंने आप लोगों का अपमान किया या आप लोगों ने मेरा अपमान किया, यह तो स्वयंसेवी ही बतला सकता है, जिसको आपने दरवाजे पर बिठा रखा था, लेकिन मैं इतना जरूर कहूँगा, खास तौर से आपसे कि आप ऐसे शरीफों के लिए यह फकीरों, बागियों और आवारों की संस्था कांग्रेस नहीं है। फिर भी अगर मैंने कोई सख्त बात कह दी तो माफी माँगे लेता हूँ।’’

अपने पिता के इस व्यवहार के कारण दयानाथ लज्जा से गड़ा जा रहा था। इस बार उसके बोलने की बारी थी, ‘‘ददुआ मुझे ऐसी आशा नहीं कि एकाएक आप इस बुरी तरह अपनी मनुष्यता पर अपना अधिकार खो बैठेंगे। वह स्वयंसेवी आपको पहचानता नहीं था, यही उसका और हम लोगों का अपराध था।’’ कुछ रूककर उसने फिर कहा, ‘‘और मेरे अतिथियों का जो अपमान हुआ है उसके लिए आपकी ओर से मैं उनसे माफी माँगे लेता हूँ। अब आप अन्दर चलें, जिस काम के लिए हम लोग एकत्रित हुए हैं वह महत्त्व का है।’’

रामनाथ को बिना कुछ कहने का अवसर दिए ही उसने अपने साथियों से कहा, ‘‘आप लोग कार्यवाही जारी रक्खें, मुझे अपने पिताजी से कुछ बातें करनी हैं, तब तक के लिए मैं क्षमा चाहूँगा।’’ और यह कहकर वह वहाँ से चल पड़ा।
पंडित रामनाथ तिवारी चुपचाप उठ खड़े हुए। उनकी शिष्टता और उनकी अहम्मन्यता में उस समय एक भयानक द्वन्द्व मचा हुआ था और उस द्वन्द्व के कारण वे विसुध-से हो रहे थे। दयानाथ के साथ रामनाथ और प्रभानाथ ने दयानाथ के साथ शयनगृह में दयानाथ की पत्नी राजेश्ववरी देवी खादी की धोती पहने हुए तकली पर सूत कात रही थीं। श्वसुर को देखते ही वे उठ खड़ी हुईं और उन्होंने घूँघट काढ़ लिया। इसके बाद उन्होंने रामनाथ के चरण छुए।

रामनाथ उस समय किसी हद तक सुव्यवस्थित हो गए थे। उन्होंने आशीर्वाद दिया, ‘‘सदा सौभाग्यवती रहो, फलो-फूलो।’’
राजेश्वरी देवी कमरे के बाहर चली गईं, और बरामदे में कमरे के दरवाजे से लगकर खड़ी हो गईं। रामनाथ ने प्रभाकर की ओर देखा; प्रभाकर ने अपनी मुस्कुराहट दबाने का लाख प्रयत्न किया, पर रामनाथ ने उसकी मुस्कुराहट देख ही ली। कड़े स्वर में कहा, ‘‘तुम जाकर अपनी भावज से बातचीत करो-यहाँ रहने की कोई जरूरत नहीं।’’

प्रभाकर की मुस्कराहट का कारण था उसका कौतुहल। घर से वह इस आशा के साथ चला था कि वह अपने पिता और बड़े भाई की मजेदार मुठभे़ड़ देखेगा। वह अपने पिता को जानता था, वह अपने बड़े भाई को भी अच्छी तरह जानता था। पिता पर उसकी ममता थी, बड़े भाई के प्रति उसकी श्रद्धा। दोनों ही चरित्रवान तथा अपने-अपने विश्वासों पर दृढ़ आदमी थे। दोनों मे ही स्वामित्व का भाव प्रबल था, किसी से दबना दोनों में से एक ने भी नहीं जाना।

प्रभानाथ का मुँह उतर गया, एक मजेदार और दिलचस्प दृश्य को देखने से वह वंचित रह गया। सिर झुकाए हुए बाहर निकला। वहाँ अपनी भावज को देखा। राजेश्वरी देवी ने होंठ पर उँगली लगाकर चुप रहने का इशारा किया, बेचारा प्रभानाथ वहाँ से भी निराश चल दिया। आँगन-में वह पहुँचा सामने रसोईघर में महाराज बाहर से आए हुए अतिथियों के लिए नाश्ता तैयार कर रहा था। प्रभानाथ को एकाएक याद हो आया कि उसे रामनाथ की आज्ञा से शाम की चाय छोड़कर ही चला आना पड़ा था। नौकर से कुरसी मँगवाकर उसने रसोईघर के सामने डलवा ली, और फिर बैठकर चाय पर जुट गया। प्रभानाथ के जाने के बाद थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा। रामनाथ सोच रहे थे-किस प्रकार बात आरम्भ की जाए और दयानाथ रामनाथ के बाद की प्रतीक्षा कर रहा था।

रामनाथ ने बात आरम्भ की, ‘‘तो देख रहा हूँ कि तुम खद्दरपोश हो गए हो !’’ कुछ देर तक अपनी बात का जवाब पाने की प्रतीक्षा के बाद रामनाथ ने फिर कहा, ‘‘और सरगर्मी के साथ कांग्रेस का काम कर रहे हो।’’
इस बार भी दयानाथ ने कोई उत्तर नहीं दिया।
रामनाथ का स्वर कड़ा हो गया, ‘‘बोलते क्यों नहीं ? क्या गूँगे हो गए हो ?’’
‘‘इसमें मेरे बोलने की क्या आवश्यकता, सबकुछ तो आप देख ही रहे हैं ?’’ शान्त भाव से दयानाथ ने कहा।
दयानाथ के शान्त और दृढ़ स्वर ने रामनाथ को उत्तेजित कर दिय़ा। ‘‘हाँ, सबकुछ देख रहा हूँ और उससे अधिक सुन रहा हूँ ! जानते हो, तुम मेरे नाम को, मेरे कुल को कलंकित कर रहे हो !’’
‘‘मैंने तो इस सबमें कलंक की कोई बात नहीं समझी-और न समझने को तैयार हूँ !’’
रामनाथ ने अपनी जेब से सरकारी पत्र को निकालकर दयानाथ के सामने फेंकते हुए कहा, ‘‘इस पत्र को देखते हो ? इसके बारे में तुम्हें क्या कहना है ?’’

दयानाथ ने पत्र पढ़ा। कुछ सोचकर उसने कहा, ‘‘सरकार पुत्र की जिम्मेदारी पिता पर कैसे रख सकती है, और फिर उसने यही कैसे समझ लिया कि मेरी आत्मा पर आपका पूर्ण अधिकार है ?’’
रामनाथ इस उत्तर से चौंक पड़े। उन्होंने आश्चर्य से अपने पुत्र को देखा। दयानाथ की उम्र पैंतीस वर्ष की थी-वह कानपुर का प्रमुख वकील था। रामनाथ की नजर में दयानाथ एक लड़का था-उनका लड़का था-जो उनके सामने नंगा घूमा, जो उनकी टेढ़ी नजर के सामने दबक जाता था, जिस पर उन्होंने हमेशा शासन ही किया। अपने अधिकार की उपेक्षा पर पिता को एक धक्का-सा लगा। थोड़ी देर तक वे अवाक, एकटक दयानाथ को देखते रहे।

और एकाएक मर्माहत पिता का स्थान अपमानित स्वामी ने ले लिया। रामनाथ तनकर खड़े हो गए। उनकी भृकुटियाँ खिंच गईं, उनके स्वर में ममता के स्थान पर स्वामित्व की कठोरता आ गई, ‘‘अगर सरकार ने यह समझा कि तुम्हारी आत्मा पर मेरा पूर्ण अधिकार है तो उसने गलती नहीं की। मैं अपने अधिकार को अच्छी तरह जानता हूँ, यह याद रखना।’’
बात अधिक न बढ़े, दयानाथ ने इसलिए कोई उत्तर नहीं दिया।
रामनाथ ने फिर कहा, ‘‘मैं तुमसे कहने आया हूँ कि तुम कांग्रेस छोड़ दो। जो मार्ग तुमने अपनाया है वह गलत है, अकल्याणकारी है। तुम उस संस्था में शामिल हो रहे हो जो तुम्हें नष्ट कर देने पर तुली हुई है।’’
‘‘मुझे नष्ट कर देने पर तुली हुई है ?’’ दयानाथ ने आश्चचर्य से पूछा।

‘‘हाँ, तुम्हें-मुझे-हम सब लोगों को। इतनी बड़ी और ताकतवर ब्रिटिश सरकार को मिटाने की सोचनेवाली संस्था हम जमींदारों को, हम रईसों को छोड़ देगी, यह समझना बहुत बड़ी मूर्खता है।’’
दयानाथ ने कहा, ‘‘ददुआ आप क्या कह रहे है ? हमारी लड़ाई तो विदेशी सरकार से है-यह लड़ाई स्वाधीनता प्रात्त करने के लिए है। क्या जमींदार और क्या किसान-हम सब गुलाम हैं। और कांग्रेस हम सब गुलामों की संस्था है जिसका उद्देश्य देश को विदेशियों के शासन से प्राप्त करने के लिए है। क्या जमींदार और क्या किसान-हम सब गुलामों की संस्था है जिसका उद्देश्य देश विदेशियों के शासन से मुक्त कराना है।’’

उपेक्षा की मुस्कराहट के साथ रामनाथ ने कहा, ‘‘तुमने इतना अध्ययन किया, तुमने वकालत पास की लेकिन तुम्हें अक्ल नहीं आई। यह याद रखना, कि गुलामी ही है, चाहे वह विदेशियों की चाहे वह अपने देशवालों की हो। विदेशियों की गुलामी से लोगों को छुड़ाने की कोशिश करने वाली संस्था देशवासियों की गुलामी में लोगों को बँधे रहने देगी-क्या तुम्हें इस पर यकीन है ?’’
‘‘शायद नहीं ! ’’ दयानाथ ने कहा।
‘‘शायद नहीं-नहीं; निश्चय नहीं।’’ रामनाथ हँस पड़े, ‘‘और इसलिए मैं कहता हूँ कि कांग्रेस छोड़ दो। हम जमींदारों की भलाई कांग्रेस का साथ देने में नहीं है।’’ यह कहकर रामनाथ बैठ गए। उनके मुख पर विजय का गर्व था, उनके हृदय में सफलता का विश्वास था।

पर रामनाथ की प्रसन्नता क्षणिक थी। अभी दयानाथ कुछ दबा-सा बात कर रहा था, अब उसने सामना किया। अभी तक वह अपने पिता से बात कर रहा था, अब उसने विपक्षी से बात शुरू की। उसने कुछ थोड़े गम्भीर स्वर में आरम्भ किया, ‘‘ददुआ, बात सिद्धान्त की है और इसलिए मेरी बात पर आप बुरा न मानिएगा। मैं कांगेस का साथ दे रहा हूँ अपनी गुलामी तोड़ने के लिए। आपका कहना है कि दूसरों को गुलाम बनाए रखने के लिए मैं गुलाम बना रहूँ; और मैं अपनी गुलामी तोड़ने पर यदि दूसरे मेरी गुलामी से दूर होते हैं तो उसमें हर्ज नहीं है, और आप चाहते हैं कि मैं भी इस बात पर विश्वास करूँ !’’             

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